Tuesday, October 27, 2009

न जाने ये किसकी डायेरी है, न नाम है न पता है कोई
हर एक करवट मे याद करता हूँ तुमको , लेकिन
करवटें लेते ये रात दिन यूँ मसल रहे हैं मेरे बदन को,
के तुम्हारे यादों को नील पड़ गए हैं
कभी कभी रात की स्याही चेहरे पे कुछ ऐसी जम सी जाती है
लाख रगडून, सेहर के पानी से लाख धोयुँ मगर ये कालिख नही उतरती
मिलोगी जब तुम, पता चलेगा मैं और भी काला हो गया हूँ
मैं धुप मे जल के इतना कला नही हुआ था जितना इस रात मे सुलग के स्याह हुआ हूँ
तुम्हे भी तो याद होगी वो रात सर्दियों की जब
औंधी कश्ती के नीचे हमने अपने बदन के चूल्हे जला के तापे थे...दिन किया था

ये पत्थरों का बिछौने हरगिज़ न सख्त लगता
जो तुम भी होती , तुम्हे ही ओढ़ता, तुम्हें बिछाता भी ...

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